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But I have come across another much deeper and more succinct expression of the virtues of laziness in the following Hindi poem that I learnt in school. The poem is Aaraam Karo by Gopal Prasad Vyas.
I lead a completely lazy life and have cause to thank the generosity of my parents and family for supporting and putting up with me. It is in this context that I thought of this poem that I had first come across so many decades ago. Please read it below. It is irreverent and hilarious but also quite factual in its understanding of the advantages of being lazy
एक मित्र मिले‚ बोले‚ “लाला तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छटांक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।
क्या रक्खा है मांस बढ़ाने में‚ मनहूस‚ अकल से काम करो।
संक्रान्ति–काल की बेला है‚ मर मिटो‚ जगत में नाम करो।”
हम बोले‚ “रहने दो लैक्चर‚ पुरुषों को मत बदनाम करो
इस दौड़–धूप में क्या रक्खा‚ आराम करो‚ आराम कारो।”
आराम ज़िंदगी की कुंजी‚ इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद‚ तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में ‘राम’ छिपा‚ जो भव बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिये तुम्हें समझाता हूं‚ मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन‚ यौवन क्षणभंगुर‚ आराम करो‚ आराम कारो।
यदि करना ही कुछ पड़ जाये तो अधिक न तुम उत्पात करो।
अपने घर में बैठे–बैठे बस लंबी–लंबी बात करो।
करने–धरने में क्या रक्खा‚ जो रक्खा बात बनाने में।
जो होंठ हिलाने में रस है‚ वह कभी न हाथ हिलाने में।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊं – है मजा मूर्ख कहलाने में।
जीवन–जागृति में क्या रक्खा‚ जो रक्खा है सो जाने में।
मैं यही सोच कर पास अकल के‚ कम ही जाया करता हूं।
जो बुद्धिमान जन होते हैं‚ उन से कतराया करता हूं।
दीये जलने से पहले ही मैं घर आ जाया करता हूं।
जो मिलता है खा लेता हूं‚ चुपके सो जाया करता हूं।
मेरी गीता में लिखा हुआ — सच्चे योगी जो होते हैं।
वे कम–से–काम बारह घंटे तो बेफिक्री से सोते हैं।
अदवायन खिंची खाट पर जो पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग‚ अपवर्ग‚ मोक्ष से भी ऊंचा उठ जाता है।
जब ‘सुख की नींद’ कढ़ा तकिया‚ इस सर के नीचे आता है‚
तो सच कहता हूं इस सर में‚ इंजन जैसा लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूं‚ बुद्धि भी फक–फक करती है।
भावों का रश हो जाता है‚ कविता सब उमड़ी पड़ती है।
मैं औरों की तो नहीं‚ बात पहले अपनी ही लेता हूं।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊंटों की उपमा देता हूं।
मैं खटरागी हूं‚ मुझको तो खटिया में गति फूटते हैं।
छत की कड़ियां गिनते–गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।
मै इसीलिये तो कहता हूं‚ मेरे अनुभव से काम करो।
यह खाट बिछा लो आंगन में‚ बैठो‚ लेटो‚ आराम करो।
∼ गोपाल प्रसाद व्यास
Sourced from
आराम करो – गोपाल प्रसाद व्यास
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